पुराना यमुना पुल मुट्ठीगंज प्रयागराज

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Old Naini Bridge Prayagraj Allahabad

15 अगस्त 1865 से पहले जब यह पुल अस्तित्व में नहीं था तो यमुना को पार करने के लिए सिर्फ एक ही रास्ता था लकड़ी की नाव, लेकिन यमुना के तेज बहाव में कई बार नावे पलट चुकी थी और कई लोग दुर्घटना में मारे गए थे। ब्रिटिश अधिकारियों ने इसका एक हल निकाला। गौ घाट के पास नाविकों की एक बस्ती थी । इस जगह यमुना की चौड़ाई भी कम थी। इसीलिए यमुना के ऊपर सभी नावों को मिलाकर एक अस्थाई पुल बनाया गया। जिसे नाव वाला पुल कहा जाता था। इससे यमुना को पार करने में कम समय लगता था और यह तरीका सुरक्षित भी था। इसी सिद्धांत पर आज भी माघ मेला या कुंभ मेले के समय पीपा के पुल बनाए जाते हैं। पर समस्या यह थी कि मानसून के समय जब यमुना में जलस्तर बढ़ता था और पानी आसपास की बस्तियों में भी घुस जाता था तो नाव को एक साथ जोड़ कर रखना संभव नहीं था। इस तरह से 2 या 3 महीने ऐसे होते थे जब यमुना के तेज बहाव में सिर्फ नाव के द्वारा नदी को पार करने का जोखिम उठाया जाता था। इसी जोखिम को कम करने के लिए 1855 में ब्रिटिश सरकार द्वारा यमुना के ऊपर एक स्थाई पुल निर्माण की योजना बनाई गई। लेकिन 1857 में हुए आजादी की पहली लड़ाई के सक्रिय होने के बाद गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग (1856-1862) ने पुल के निर्माण कार्य को रोक दिया गया। लॉर्ड कैनिंग को इस बात का अंदेशा था कि पुल बन जाने के बाद विद्रोहियों के द्वारा बड़ी संख्या में इलाहाबाद के भीतर घुसना आसान हो जाएगा। इसलिए वह पुल को इलाहाबाद के किले के पास से ले जाना चाहते थे ताकि किले में मौजूद छावनी के सैनिक उसके ऊपर बारीकी से नजर रख सकें। लेकिन 1859 मैं इंजीनियरों की रिपोर्ट को गहराई से समझने के बाद इस विचार को छोड़ दिया गया क्योंकि इस जगह यमुना का बहाव बहुत ही तेज और गहराई अधिक थी।


आखिरकार 1859 में गऊघाट पर ही पुल को बनाने की योजना पर अमल किया गया जहां नावों का पुल बनाया जाता था। लेकिन पुल बनाने में दो समस्याएं थी- पहला यमुना की गहराई और दूसरा तेज बहाव। पुल सिर्फ उसी समय बनाया जा सकता था जब यमुना का जलस्तर काफी कम हो। इसके लिए अलग-अलग तकनीकों का इस्तेमाल करके, कई छोटे-छोटे बांध बनाकर, यमुना के पानी को कम कर दिया गया। लेकिन इस तकनीक से यमुना के प्रवाह को सिर्फ कुछ ही महीने तक ही नियंत्रित किया जा सकता था। यही वह समय था जिसमें काफी संख्या में मजदूर और इंजीनियर एक साथ पुल के 13 खंभों को बनाने में जुट गए थे। पुल के निर्माण का कार्य ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी के उत्तर-पश्चिम प्रांत के मुख्य इंजीनियर जॉर्ज सिबली की देख-रेख में हो रहा था।


1862 तक पुल के सभी खंभे बनकर तैयार हो गए। लेकिन जब यमुना का जलस्तर थोड़ा सा बढ़ा तो 13वां खंभा तेज बहाव में बह गया। क्योंकि यहां पर यमुना की गहराई बहुत ज्यादा थी। इसका एक हल यह निकाला गया कि इसे जूते की शक्ल में बनाया जाए। और सबसे नीचे मजबूत ईटें और पत्थर को आधार बनाकर उसमें कंक्रीट भर दिया जाए। धरातल से लगभग 42 फीट नीचे गहरा गड्ढा खोदकर भीटा से लाई गई मजबूत ईटें और पत्थरों को मसाले के द्वारा भरकर एक मजबूत आधार बनाया गया। लेकिन इस 13वें खंभे को बनाने में 20 महीने से भी ज्यादा का समय लग गया। आज भी इस 13वें खंभे को हाथी पांव कहकर बुलाया जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि इस खंभे को बनाने के लिए स्थानीय लोगों की सलाह पर किसी मनुष्य की गुप्त बलि दी गई थी। हालांकि इस बात में कितनी सच्चाई है इसे सिद्ध कर पाना बहुत ही कठिन है।


इसकी कुल लंबाई लगभग 1006 मीटर यानि 3300 फिट से अधिक है। इस पुल को बनाने में ब्रिटिश सरकार द्वारा 44 लाख 46 हजार 300 रुपए खर्च किए गए थे। 1913 से पहले इस पर सिर्फ एक ही रेलवे पथ बिछाया गया था लेकिन बढ़ती हुई रेल यातायात की संभावनाओं को देखते हुए इसका दोहरीकरण किया गया लेकिन कमाल की बात यह है कि इसके लिए अंग्रेजों द्वारा बनाए गए ढांचे के साथ कोई मूलभूत छेड़छाड़ नहीं करनी पड़ी। जो इंजीनियरिंग की दूरदर्शिता का ही परिणाम है। 1928 के बाद इसके गर्डर को बदलकर नए गर्डर लगाए गए।


हर पांच साल बाद इसका बारीकी से निरीक्षण किया जाता है। प्रत्येक चार वर्ष पर इसको टिकाऊँ बनाए रखने के लिए ऑयलिंग-ग्रीसिंग एवं पेंटिंग करके दुरुस्त किया जाता है। पुल के रख रखाव के लिए रेल विभाग द्वारा एक विशेष टीम का गठन किया गया है, जो निरंतर, बारीकी के साथ, हर चीज पर नजर रखते हैं। पुल में जगह-जगह सेंसर लगे हुए हैं जो यमुना के घटते- बढ़ते जलस्तर के बारे में तत्काल जानकारी पहुंचाते हैं। 2007 में लकड़ी के स्लीपर को बदलकर स्टील के बने हुए चैनल स्लीपर लगाए गए थे। 2019 के कुंभ मेले के दौरान इस पुल को आकर्षक दिखाने के लिए इस पर एलईडी लाइट और फसाड लाइटें भी लगाई गई। आज इस पुल के ऊपर से लगभग 200 रेलगाड़ियां रोज गुजरती है और पुल के निचले हिस्से से हजारों की संख्या में वाहनों का आवागमन निरंतर होता है। 158 वर्षों से भी अधिक की उम्र हो जाने के बाद भी ये अपने ढांचे के साथ उसी स्वरूप में खड़ा है जैसा इसे ब्रिटिश काल में बनाया गया था। निश्चय ही इस पुल को प्रयागराज के विस्तृत इतिहास में एक विशेष धरोहर के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।


Old Naini Bridge Prayagraj Allahabad
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