
प्रयागराज (प्राचीन नाम प्रयाग) का इतिहास अत्यंत प्राचीन और समृद्ध है। मुगलों से पहले इस क्षेत्र पर कई महत्वपूर्ण राजवंशों और शासकों का शासन रहा, जिनमें वैदिक काल से लेकर मौर्य, गुप्त, और वत्स राजवंश प्रमुख हैं। यह क्षेत्र धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है, खासकर गंगा, यमुना, और सरस्वती नदियों के संगम के कारण। इस लेख में हम प्रयागराज के इतिहास को विस्तार से जानेंगे।

प्रयागराज पौराणिक इतिहास - वैदिक काल और आर्य सभ्यता
प्रयागराज का उल्लेख सबसे पहले वैदिक साहित्य में मिलता है। *ऋग्वेद* में इसे एक पवित्र स्थल के रूप में वर्णित किया गया है। यह माना जाता है कि आर्यों ने यहां प्रारंभिक बस्तियां बसाईं थीं। वैदिक काल में प्रयाग को एक महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र माना जाता था, जहां यज्ञ और धार्मिक अनुष्ठान होते थे। इस समय यह क्षेत्र *आर्यावर्त* के अंतर्गत आता था।

प्रयागराज का रामायण काल का इतिहास
वाल्मीकि रामायण के अनुसार, जब राम को अयोध्या से वनवास मिला, तो वे अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ दक्षिण की ओर जा रहे थे। इस दौरान वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे जहां उनकी मुलाकात निषाद राज गुह से हुई जिन्होंने नाव के द्वारा गंगा पार कराया। जिसके बाद वह गंगा नदी के किनारे चलते हुए ऋषि भारद्वाज के आश्रम में पहुंचे जहां उन्होंने कुछ समय बिताया और उनकी सलाह पर पवित्र माने जाने वाले संगम पर जाकर डुबकी लगाई। फिर अक्षयवट के नीचे एक शिवलिंग बनाकर वह यमुना को पार करने के लिए आगे बढ़ गए ।
प्रयागराज का महाभारत काल का इतिहास
महाभारत की कथा के अनुसार, दुर्योधन ने पांडवों को मारने के लिए एक योजना बनाई थी जिसमें उन्हें एक लाख (मोम) के बने महल में फंसाकर आग लगानी थी। इस घटना को "लाक्षागृह" के नाम से जाना जाता है। हंडिया, जो वर्तमान प्रयागराज जिले का हिस्सा है, को इस घटना का स्थल माना जाता है। यह स्थान महाभारत की कथा का हिस्सा होने के कारण प्रसिद्ध है। यहाँ एक सुरंग होने की बात कही जाती है जिससे पांडव बच निकले थे, लेकिन यह दावा पुरातात्विक रूप से प्रमाणित नहीं हुआ है।
पड़िला महादेव मंदिर, जो प्रयागराज जिले के पास स्थित है, को पांडवों के अज्ञातवास से जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि यहां पांडवों ने शिवलिंग की स्थापना की थी। हालांकि इस कथा का कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, लेकिन यह स्थान स्थानीय मान्यताओं और परंपराओं में महत्वपूर्ण बना हुआ है। ऐसे धार्मिक स्थल अक्सर स्थानीय इतिहास और सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा होते हैं, जिनका महत्व समय के साथ बढ़ता गया।

प्रयागराज का इतिहास - वत्स राज्य (कौशाम्बी) मौर्य और गुप्त साम्राज्य
प्राचीन काल में प्रयागराज का एक बड़ा हिस्सा *वत्स राज्य* के अंतर्गत आता था, जिसकी राजधानी *कौशाम्बी* थी (जो वर्तमान कौशाम्बी जिले के पास स्थित है)। वत्स राज्य की स्थापना कुरु वंश की एक शाखा द्वारा की गई थी। यह क्षेत्र व्यापार और सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था। कौशाम्बी उस समय की एक महत्वपूर्ण नगर थी, जहां बौद्ध धर्म भी फला-फूला। सम्राट अशोक ने यहां बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए कई स्तूपों और मठों का निर्माण करवाया था। आज भी प्रयागराज किले के भीतर अशोक स्तम्भ मौजूद है। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने यहां अपनी विजय अभियानों के दौरान कई महत्वपूर्ण कार्य किए। चीनी यात्री *फाहियान* और *ह्वेनसांग* ने अपने यात्रा वृत्तांतों में इस क्षेत्र का जिक्र किया है और बताया है कि यहां कई बौद्ध मठ थे।

प्रयागराज का इतिहास - हर्षवर्धन का शासन
7वीं शताब्दी में सम्राट *हर्षवर्धन* ने भी प्रयागराज पर शासन किया। हर्षवर्धन ने यहां हर पांच साल में एक बड़ा धार्मिक उत्सव आयोजित किया, जिसे *प्रयागराज महोत्सव* कहा जाता था। इस महोत्सव में विभिन्न धर्मों के अनुयायी भाग लेते थे, जिसमें बौद्ध धर्म, जैन धर्म, और हिंदू धर्म शामिल थे। आगे चलकर यही महोत्सव कुम्भ के नाम से जाना गया।

प्रयागराज का इतिहास - प्रतिष्ठानपुर (पुरुरवा का राज्य)
प्राचीन काल में प्रयागराज के पास स्थित *प्रतिष्ठानपुर* (झूसी) चंद्रवंशी राजा पुरुरवा का राज्य था। यह स्थान भी धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण था। पुरुरवा को चंद्रवंशी वंश का संस्थापक माना जाता है, और उनके शासनकाल में यह क्षेत्र काफी समृद्ध हुआ।

प्रयागराज का इतिहास - अकबर के समय में इलाहाबाद
मुगल सम्राट अकबर ने 1575 ईस्वी में प्रयाग का नाम बदलकर इलाहाबाद रखा। उन्होंने यहां एक बड़ा किला बनवाया, जो आज भी प्रयागराज का एक प्रमुख ऐतिहासिक स्थल है। अकबर के बेटे जहांगीर ने भी यहां कुछ समय बिताया। उनके बेटे खुसरो की कब्र भी यहीं पर है। अकबर के शासनकाल में इलाहाबाद एक बहुत ही अहम सरकारी केंद्र बन गया था। उस समय इसे 10 जिलों (सरकारों) और 177 छोटे हिस्सों (परगनों) में बांटा गया था। परगना उस समय की सबसे छोटी इकाई होती थी, जिसमें कई गाँव और आसपास के इलाके शामिल होते थे। मुगल साम्राज्य के पतन के बाद, प्रयागराज मराठाओं के अधीन आ गया।

प्रयागराज का इतिहास - बक्सर की लड़ाई और इलाहाबाद की संधि (1764-1770)
इलाहाबाद पर अंग्रेजों का प्रभाव 1764 में बक्सर की लड़ाई के बाद शुरू हुआ। इस युद्ध में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय, अवध के नवाब शुजाउद्दौला, और बंगाल के नवाब मीर कासिम की संयुक्त सेना को हराया। इसके बाद, 1765 में इलाहाबाद की संधि पर हस्ताक्षर हुए, जिसमें मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय ने अंग्रेजों को बंगाल, बिहार, और उड़ीसा के दीवानी अधिकार (राजस्व संग्रह के अधिकार) सौंप दिए थे। इस संधि के तहत शाह आलम द्वितीय को इलाहाबाद और कड़ा के जिले दिए गए थे, लेकिन इन क्षेत्रों पर अंग्रेजों का नियंत्रण बढ़ता गया। संधि के अनुसार, अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने किले में अपनी सेना तैनात कर दी थी ताकि वे शाह आलम द्वितीय की रक्षा कर सकें। हालांकि, शाह आलम द्वितीय को यह व्यवस्था पसंद नहीं आई। इस दौरान, शाह आलम द्वितीय ने इलाहाबाद किले में छह साल बिताए।

प्रयागराज का इतिहास - मराठों का प्रभाव (1771-1773)
1771 में मराठा सरदार महादजी शिंदे ने शाह आलम को दिल्ली तक सुरक्षित पहुंचाया। इस दौरान (1771-1773) तक, मराठों ने इलाहाबाद में कुछ समय बिताया और यहां उन्होंने अलोपी देवी मंदिर सहित दो मंदिरों का निर्माण भी करवाया। शाह आलम द्वितीय को जब एहसास हुआ कि मराठा उनके क्षेत्रों पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे हैं, तो उन्होंने अपने सेनापति नजफ खान को इलाहाबाद में मराठों के खिलाफ कार्रवाई करने का आदेश दिया। इसके जवाब में, मराठा सरदार तुकोजी राव होल्कर और विसाजी कृष्ण बिनिवाले ने 1772 में दिल्ली पर हमला किया और मुगल सेना को हरा दिया। 1772 के आसपास, मराठों को इलाहाबाद और कड़ा जिलों के लिए एक शाही फरमान (सनद) मिली थी, जिससे उन्हें इन क्षेत्रों पर अधिकार मिल गया था।

प्रयागराज का इतिहास - अवध के नवाबों का अधिकार (1773-1800)
दिल्ली सल्तनत ने भले ही मराठों को इलाहाबाद और कड़ा का इलाका दे दिया हो लेकिन अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने इन्हें देने से इनकार कर दिया और अंग्रेजों से मदद मांगी। इसके बाद 1773 में, अंग्रेज गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने नवाब शुजाउद्दौला के साथ बनारस की संधि की, जिसके तहत इलाहाबाद और कड़ा जिलों को 50 लाख में नवाब के हवाले कर दिया गया। इस तरह इलाहाबाद अवध प्रांत में शामिल हो गया।

1775 में शुजाउद्दौला की मृत्यु हो जाने के बाद उनके बेटे आसफ-उद-दौला (1775-1797) ने 1775 में नवाब का पद संभाला। उनके शासनकाल में अवध की राजधानी को फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित किया गया। आसफ-उद-दौला का शासनकाल आर्थिक रूप से कमजोर रहा, और उन्होंने अंग्रेजों से भारी कर्ज लिया। इसके बावजूद, इलाहाबाद पर उनका नियंत्रण बना रहा।
1798 में, आसफ-उद-दौला (1798-1801) की मृत्यु के बाद, अंग्रेजों ने सआदत अली खान को नवाब बनाया। सआदत अली खान आर्थिक संकट में थे और 1801 में उन्होंने इलाहाबाद सहित कई क्षेत्रों को अंग्रेजों को सौंप दिया। इसके साथ ही इलाहाबाद पूरी तरह से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में आ गया।

प्रयागराज का इतिहास - जब अंग्रेजों का पूरा कब्जा हुआ (1801-1825)
1801 में अवध के नवाब सआदत अली खान ने इलाहाबाद किला और पूरा इलाका आर्थिक संकट के चलते अंग्रेजों को बेच दिया। सआदत अली खान के पास पैसे की कमी थी और उन्हें अपने राज्य को चलाने के लिए धन की जरूरत थी। इस कारण उन्होंने इलाहाबाद सहित कई अन्य क्षेत्रों को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंपा दिया तब इसमें केवल 5 सरकारें और 26 परगने बचे थे। फतेहपुर-हंसवा भी इलाहाबाद का हिस्सा था, लेकिन परगना केवई अलग था। धीरे-धीरे अंग्रेजों ने इस क्षेत्र को अपने तरीके से पुनर्गठित करना शुरू किया।

प्रयागराज का इतिहास - जब अंग्रेजों ने बनाया फतेहपुर जिला
1825 में अंग्रेजों ने कड़ा और कोड़ा जैसे पुराने परगनों को मिलाकर एक नया जिला बनाया – फतेहपुर। इसके साथ ही इलाहाबाद जिले में भी कई बदलाव हुए। प्रशासनिक काम को आसान बनाने के लिए 1840 में पहली बार नियमित बंदोबस्त की शुरुआत की गई। इसके तहत इलाहाबाद जिले को 14 परगनों से मिलाकर 9 तहसीलों में विभाजित किया गया। लेकिन यहां भी बदलाव रुके नहीं।

प्रयागराज का इतिहास - इलाहाबाद का राजधानी बनने का सफर
1834 में, इलाहाबाद को उत्तर-पश्चिमी प्रांत की राजधानी घोषित किया गया। हालांकि, यह राजधानी ज्यादा दिनों तक यहां नहीं रही और 1836 में इसे आगरा कर दिया गया। 1843 में, तहसील मंझनपुर को पश्चिम शरीरा में शामिल कर दिया गया, और 1865 तक सिराथू तहसील दारानगर में रही। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, यह शहर विद्रोह का एक प्रमुख केंद्र था। आजादी के प्रथम संग्राम 1857 के पश्चात 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मिंटो पार्क में आधिकारिक तौर पर भारत को ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया था। इसके बाद शहर का नाम इलाहाबाद रखा गया तथा इसे आगरा-अवध संयुक्त प्रांत की राजधानी बना दिया गया। इस तरह इलाहाबाद जिले की सीमाएं और प्रशासनिक ढांचा लगातार बदलता रहा।

प्रयागराज का इतिहास - जब इलाहाबाद में अवध शामिल हुआ
1868 ईस्वी में यहां उच्च न्यायालय की स्थापना हुई, जो उत्तर प्रदेश के न्यायिक मामलों का प्रमुख केंद्र बन गया।1871 ई० में ब्रिटिश वास्तुकार सर विलियम ईमरसन ने कोलकाता में विक्टोरिया मेमोरियल डिजाइन करने से तीस साल पहले आल सैंट कैथेड्रल के रूप में एक भव्य स्मारक की स्थापना की। इलाहाबाद का महत्व तब और बढ़ गया जब 1877 में, अवध प्रांत को भी इसमें मिला लिया गया और लखनऊ से मुख्य कार्यकारी प्राधिकरण की सीट यहां स्थानांतरित कर दी गई। 1887 ईस्वी में स्थापित इलाहाबाद विश्वविद्यालय भारत के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। लगभग 130 साल तक यह शहर राज्य की विधिक राजधानी रहा। हालांकि, 1921 में, सभी महत्वपूर्ण सरकारी कार्यालय लखनऊ स्थानांतरित कर दिए गए, लेकिन तब तक इलाहाबाद अपनी पहचान बना चुका था।

प्रयागराज का इतिहास - जब बना इलाहाबाद मंडल और नए जिले
19वीं शताब्दी के अंत में ब्रिटिश शासन के दौरान इलाहाबाद मंडल बनाया गया। ब्रिटिश ने अपने प्रशासनिक ढांचे को सुधारने और कर वसूली को बेहतर करने के लिए भारत में कई मंडल बनाए। जिसमें से इलाहाबाद भी था। इसमें शुरूआत में इटावा, कानपुर, फतेहपुर और फर्रुखाबाद जिले शामिल थे। बाद में प्रतापगढ़ भी इसका हिस्सा बना। लेकिन 1988 में, कानपुर देहात को कानपुर जिले से अलग करके एक नया कानपुर मंडल बनाया गया। जिसमें इटावा, कानपुर और फर्रुखाबाद जिलों को इलाहाबाद से अलग करके इसमें शामिल किया गया। जिसके बाद इलाहाबाद मंडल में केवल तीन जिले – इलाहाबाद, फतेहपुर और प्रतापगढ़ बचे।
4 अप्रैल 1997 को इलाहाबाद जिले के पश्चिमी हिस्सों को काटकर एक नया जिला बना- कौशाम्बी। इसका मुख्यालय मंझनपुर है, जो यमुना नदी के उत्तर तट पर स्थित है और प्रयागराज से लगभग 55 किलोमीटर दूर है।उस समय उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती थीं, जिन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान कई नए जिलों का गठन किया था, जिनमें कौशांबी भी शामिल था। यह कदम राज्य के विभिन्न हिस्सों में प्रशासनिक सुधार और बेहतर प्रबंधन के उद्देश्य से उठाया गया था।

प्रयागराज का इतिहास - जब इलाहाबाद हुआ प्रयागराज
स्वतंत्रता के बाद से ही इलाहाबाद का पुराना नाम प्रयागराज पुनः रखने की मांग समय-समय पर उठती रही। धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को देखते हुए स्थानीय संतों और धार्मिक समूहों ने लगातार इस मांग को आगे बढ़ाया। हालांकि, कई बार इस पर विचार हुआ, लेकिन इसे लागू नहीं किया जा सका।
1992 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इलाहाबाद का नाम बदलने की कोशिश की थी, लेकिन बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और यह प्रयास विफल हो गया। 2001 में मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने भी इस दिशा में कदम उठाए, लेकिन यह प्रयास भी सफल नहीं हो सका।
अंततः 16 अक्टूबर 2018 को उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने इलाहाबाद का नाम बदलकर आधिकारिक रूप से प्रयागराज कर दिया। योगी सरकार ने संत समाज और स्थानीय लोगों की लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा करते हुए कैबिनेट बैठक में इस प्रस्ताव को मंजूरी दी।
इस निर्णय के पीछे तर्क यह था कि जहां दो नदियों का संगम होता है, उसे प्रयाग कहा जाता है, और चूंकि प्रयागराज गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों के संगम पर स्थित है, इसलिए इसका पुराना नाम प्रयागराज ही अधिक उपयुक्त था। इसके अलावा, 2019 में होने वाले कुंभ मेले से पहले इस ऐतिहासिक बदलाव को लागू करना सरकार की प्राथमिकता थी। इसी के साथ इलाहाबाद मंडल का नाम भी बदलकर प्रयागराज मंडल हो गया। आज प्रयागराज मंडल में चार जिले हैं- प्रयागराज, फतेहपुर, प्रतापगढ़ और कौशांबी।
प्रयागराज का इतिहास अत्यंत समृद्ध और विविधतापूर्ण है। यह शहर प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं और व्यक्तियों का साक्षी रहा है। धार्मिक, सांस्कृतिक, और राजनीतिक दृष्टिकोण से इसका महत्व अद्वितीय है। यह शहर न केवल भारत के इतिहास में बल्कि विश्व इतिहास में भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।