पुराना फाफामऊ पुल ( लार्ड कर्जन ब्रिज )- लॉर्ड एलगिन द्वितीय के रिटायर होने के बाद 6 जनवरी 1899 में लार्ड कर्जन को भारत का वायसराय बनाया गया। उस दौरान प्रयागराज से अवध की ओर जाने के लिए लकड़ी की नावों का ही इस्तेमाल किया जाता था। अवध पर सैन्य नियंत्रण बढ़ाने तथा यातायात को सुगम बनाने के लिए गंगा नदी पर एक स्थाई पुल की आवश्यकता को देखते हुए लॉर्ड कर्जन ने 1901 में लगभग एक किलोमीटर लंबे और 25 फिट चौड़े एक ट्रस ब्रिज बनाने की अनुमति दी।
जनवरी 1902 में इस पुल का निर्माण कार्य शुरू हुआ। पुल को मजबूत और टिकाऊ बनाने के लिए गंगा नदी में काफी गहराई तक पत्थरों को भरकर 15 मजबूत पिलर बनाए गए। इन मजबूत पिलरों के ऊपर 61 मीटर लंबे गर्डर बिछाकर रेलवे लाइन को ट्रेनों के आवागमन के लिए मजबूत बनाया गया।
15 जून 1905 से इस पुल को रेलवे यातायात के लिए खोल दिया गया। 18 नवंबर 1905 तक वे वायसराय के पद पर बने रहे। उनके रिटायर होने के बाद 20 दिसंबर 1905 को इसे सड़क यातायात के लिए भी सक्रिय कर दिया गया।
आजादी के बाद इस पुल का नाम बदलकर मोतीलाल नेहरू सेतु रख दिया गया जो बहुत कम ही लोग जानते हैं। रखरखाव की कमी के कारण यह पुल धीरे-धीरे कमजोर होता गया और 1998 में इसे ट्रेनों के आवागमन के लिए बंद कर दिया गया। इसके ऊपर से गुजरने वाली आखिरी ट्रेन थी गंगा-गोमती एक्सप्रेस। हालांकि पुल का सबसे ऊपरी हिस्सा आज भी पैदल यातायात के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो स्काईवॉक के नाम से स्थानीय लोगों में मशहूर है।
रेलवे विभाग ने इस पुल को ध्वस्त करके यहां पर एक नए पुल को बनाने की योजना प्रस्तावित की लेकिन स्थानीय लोगों की गुहार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के हस्तक्षेप से इसे रोक दिया गया। क्योंकि यह पुल प्रयागराज की एक ऐतिहासिक धरोहर है। महात्मा गांधी से लेकर सुभाष चंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी आदि न जाने कितने लोग इस पुल से गुजरे हैं तो निश्चय ही यह एक ऐतिहासिक पुल है। 2017 में स्थानीय लोगों ने इस पुल को बचाने के लिए दीपावली के अवसर पर दिए और मोमबत्तियां से इसे रोशन कर दिया था।
सरकार ने इस पुल को एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने के लिए योजना बनाई है। जिसमें इस पुल के भीतर एक खिलौना ट्रेन चलाकर दीवारों पर प्रयागराज के इतिहास से जुड़े हुए चित्र लोगों को दिखाए जाएंगे। पुल के नीचे गंगा में पैडल बोट चलाने की भी योजना है।
जनवरी 1902 में इस पुल का निर्माण कार्य शुरू हुआ। पुल को मजबूत और टिकाऊ बनाने के लिए गंगा नदी में काफी गहराई तक पत्थरों को भरकर 15 मजबूत पिलर बनाए गए। इन मजबूत पिलरों के ऊपर 61 मीटर लंबे गर्डर बिछाकर रेलवे लाइन को ट्रेनों के आवागमन के लिए मजबूत बनाया गया।
15 जून 1905 से इस पुल को रेलवे यातायात के लिए खोल दिया गया। 18 नवंबर 1905 तक वे वायसराय के पद पर बने रहे। उनके रिटायर होने के बाद 20 दिसंबर 1905 को इसे सड़क यातायात के लिए भी सक्रिय कर दिया गया।
आजादी के बाद इस पुल का नाम बदलकर मोतीलाल नेहरू सेतु रख दिया गया जो बहुत कम ही लोग जानते हैं। रखरखाव की कमी के कारण यह पुल धीरे-धीरे कमजोर होता गया और 1998 में इसे ट्रेनों के आवागमन के लिए बंद कर दिया गया। इसके ऊपर से गुजरने वाली आखिरी ट्रेन थी गंगा-गोमती एक्सप्रेस। हालांकि पुल का सबसे ऊपरी हिस्सा आज भी पैदल यातायात के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो स्काईवॉक के नाम से स्थानीय लोगों में मशहूर है।
रेलवे विभाग ने इस पुल को ध्वस्त करके यहां पर एक नए पुल को बनाने की योजना प्रस्तावित की लेकिन स्थानीय लोगों की गुहार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के हस्तक्षेप से इसे रोक दिया गया। क्योंकि यह पुल प्रयागराज की एक ऐतिहासिक धरोहर है। महात्मा गांधी से लेकर सुभाष चंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी आदि न जाने कितने लोग इस पुल से गुजरे हैं तो निश्चय ही यह एक ऐतिहासिक पुल है। 2017 में स्थानीय लोगों ने इस पुल को बचाने के लिए दीपावली के अवसर पर दिए और मोमबत्तियां से इसे रोशन कर दिया था।
सरकार ने इस पुल को एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने के लिए योजना बनाई है। जिसमें इस पुल के भीतर एक खिलौना ट्रेन चलाकर दीवारों पर प्रयागराज के इतिहास से जुड़े हुए चित्र लोगों को दिखाए जाएंगे। पुल के नीचे गंगा में पैडल बोट चलाने की भी योजना है।









